प्रेम की भाषा

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प्रेम की भाषा

ये शब्द ज़ुबाँ हैं 

 ये शब्द ज़ुबाँ हैं

आँखें लिबास हैं,

बशर तन्हा हर रूह को

इसी की तलाश है।

दर्द के झंझावातों से

हृदय हीन  ना बच पाए,

तपन देव सूरज भी नहीं

घंघोर घटा बिन सज पाए।

जो हर शास्त्र के ज्ञानी हैं

वो अब तक ये ना सिख पाए,

इस प्रेमपूर्ण मधुपर्क को

उन्हे आँखों से कैसे दिखा पाएँ।

आसमां में उसका नूर

जो ध्रुव तारा चमकता है,

वो उसे नहीं छुपा सका

तो हम फिर कैसे छुपा पाएँ।

वेदों ने जो हमें पढ़ा  दिया

राम सिया और रास का रंग,

प्रियसी कहलाने से बढ़कर

राधा ने चुना बृजराज का संग।

बस यही प्रेम की भाषा है

कभी आशा तो कभी  निराशा है ,

इतिहास गवाही देता है 

जीवन में प्रेम सब लेता है ।

अब प्रेम की वाणी 

क्या जाने कोई ?

हुई शुरुआत कहाँ से 

क्या जाने कोई ?

इसमें मिले नवजीवन को –

हृदय खोलकर आज जियो जी,

कल ये प्रेम ही पल्टी खा जाए तो

कहाँ इसके अदालत क्या जाने कोई ।

|| क्षमाश्री दुबे ||

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